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Saturday, August 25, 2012

अहिल्या प्रकरण : वाल्मीकि

साधु-साधु! कह, जनकपुरी की सुषमा देखी मिथिला जाकर।
बहुत प्रशंसा की ऋषियों ने इसकी, अतुलित दिव्य बताकर।।
उपवन में था रम्य पुरातन आश्रम एक, किंतु था निर्जन।
उसे देखकर प्रश्न-रूप में ऋषि से बोले तब रघुनंदन।।
आश्रम-जैसा, मुनि-विहीन यह स्थान कौन है भगवन! उत्तम?।
पहले था किसका? सुनने को इच्छुक हूं, बतलाएं! सक्षम!।।
राघव के इस प्रश्न-वाक्य को भलीभांति से तब फिर सुनकर।
अति तेजस्वी वाक्य-विशारद बोले विश्वामित्र मुनीश्वर।।
पूर्व महात्मा थे इसके जो, किया जिन्होंने इसको शापित।
सुनो राम! उनका, आश्रम का वृत्त सर्वथा हो ध्यानस्थित।।
पूर्व समय यह स्थान महात्मा गौतम का आश्रम था नरवर!।
परम दिव्य, पूजा, सुप्रशंसा करते थे इसकी सब सुरवर।।
पहले यहीं अहल्या के संग श्री महर्षि गौतम ने रहकर।
वर्ष बिताये बहुत राज-सुत! करते हुए तपस्या गुरुतर।।
एक समय गौतम-अनुपस्थिति में उपयुक्त सुअवसर पाकर।
शचीनाथ ने ऋषि-स्वरूप रख कहा अहिल्या से यह आकर।।
समाहिते! ऋतुकाल-प्रतीक्षा करते नहीं रतीच्छा-रत नर।
अतः चाहता कटि-सुरम्य! तुमसे मैं संगम इस अवसर पर।।
मुनि रूपी हैं इंद्र, समझकर भी दुर्मेधा ने, रघुनंदन।
कौतूहलवश सहस्राक्ष संग संगम का कर दिया समर्थन।।
बोली रति-तुष्टा ऋषि-पत्नी मैं कृतार्थ हूं अतिशय सुरवर!।
प्रभो! आप अब इस आश्रम से यत्नपूर्वक जाएं सत्वर।।
मेरी और स्वयं की रक्षा ऋषि-प्रकोप से करें सुरेश्वर!।
तब बोले यह वाक्य अहल्या से, महेंद्र वे तत्क्षण हंसकर।।
मैं जैसे आया था सुंदरि! उसी भांति से जाऊंगा अब।
इंद्र अहल्या से संगम कर आश्रम से बाहर आये तब।।
गौतम के आने की शंका से थे इंद्र पलायन-तत्पर।
तब देखा करते प्रवेश हैं आश्रम में प्रत्यक्ष मुनीश्वर।।
देव-दनुज-दुर्धर्ष तपोबल से वे मुनिवर परम समन्वित।
तीर्थोदक-सिंचित शरीर से अग्नि-सदृश होते थे दीपित।।
हाथों में वे लिये हुए थे समिधाएं, कुश यज्ञ-कार्य हित।
उन्हें देखते ही विषण्णमुख इंद्र हुए भय से अतिकंपित।।
परम दुराचारी महेंद्र को मुनिस्वरूप में तभी देखकर।
मुनिवर गौतम कुपित हुए अति फिर वे बोले सदाचारि वर।।
रखकर मेरा रूप दुर्मते! पापकर्म करने से अतिशय।
होगा विफल (अंडकोषों से) मुझसे शापित होकर निश्चय।।
कुपित महात्मा गौतम-मुख से निकले जैसे ही शाप-वचन।
वैसे ही उस समय इंद्र के हुआ अंडकोषों का प्रपतन।।
वे मुनि देकर शाप इंद्र को हुए अहल्या पर भी प्रकुपित।
उससे बोले, वर्ष सहस्रों यही रहेगी तू भी शापित।।
पीकर पवन, भस्म में रहकर क्षुधा, तृषा के कष्ट सहेगी।
सभी प्राणियों से अदृश्य हो इस आश्रम में वास करेगी।।
जब इस घोर विपिन में भार्ये! अति दुर्धर्ष राम आयेंगे।
तब हो पायेगी पवित्र तू पाप-व्यूह सब मिट जायेंगे।।
लोभ, मोह, सब दोष मिटेंगे उनका ही करने से आदर।
पास हमारे तू आयेगी दिव्य देह अपना फिर पाकर।।
अपनी दुराचारिणी पत्नी से ऐसा कहकर तदनंतर।
महातपस्वी अतितेजस्वी गौतम गये निजाश्रम तजकर।।
और सिद्ध-चारण-जन-सेवित हिमगिरी के रमणीय शिखर पर।
(जाकर करने लगे तपस्या शुभाचरण में होकर तत्पर)।।
होकर अंडकोषों से वंचित वे महेंद्र संत्रस्त नयन अति।
बोले अग्नि, सिद्ध, चारण, सुर और सभी गंधर्वों के प्रति।।
देवो! गौतम-तप खंडन कर मैंने किया उन्हें प्रकुपित।
इससे सिद्ध किया है निश्चर्य कार्य आप सबका ही समुचित।।
मुझे शाप देकर अफल किया, फिर निज पत्नी को त्याग दिया है।
क्रोधित मुनि ने, इससे मैंने उनके तप का हरण किया है।।
अपनी कार्य-सिद्ध-कर्ता को यत्नपूर्वक सुर, ऋषि, चारण।
अंडकोषों से युक्त करें! अब जिससे हो संकष्ट-निवारण।।
इंद्र-वचन सुन मरुद्गणों संग अग्नि पुरोगम देव, ऋषि प्रमुख।
पितृलोक में जाकर बोले तभी पितृ देवों के सम्मुख।।
मेष आपका वृषण-सहित है और इंद्र हैं वृषण-विवंचित।
पितरो! इससे अर्पित कर दें इसका वृषण शचीपति के हित।।
आप सभी को तुष्ट करेगा अवृषण मेष यहीं पर रहकर।
तथा आपके लिए वृषण से रहित मेष देंगे जो भी नर।।
उन्हें आप सब प्रमुदित होकर देंगे श्रेयस्कर उत्तम फल।
(वे पायेंगे आयु, पुत्र, धन, धान्य आदि सुख निश्चय निश्चल)।।
पितरों ने यह अग्नि-वचन सुन मेष-वृषण का करके त्रोटन।
इंद्र-अंग के उचित स्थान पर एकत्रित हो, किया नियोजन।।
बधिया मेष-प्रयोग तभी से वे आगत, काकुत्स्थ! पितृगण।
करते हैं उपयोग, प्रदाता को देते उत्तम फल तत्क्षण।।
उसी समय से, हे रघुनंदन! मुनि गौतम-तप के प्रभाव से।
धारण करने पड़े इंद्र को मेष-वृषण अति विवश भाव से।।
अब तेजस्वी राम! चलो तुम शीघ्र पुण्यकर्मा आश्रम पर।
और करो उद्धार अहल्या भाग्यवती देवी का सत्वर।।
विश्वामित्र मुनीश्वर का यह भलीभांति से वचन श्रवण कर।
लक्ष्मण-सहित राम आश्रम में हुए प्रविष्ट, उन्हें आगे कर।।
वहां अहल्या भाग्यशालिनी को देखा तप से अति दीपित।
देख न सकते थे जिसको सुर, मानव, दानव बली असीमित।।5

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