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Wednesday, September 12, 2012

श्रीकृष्ण भक्त श्रीविदुर जी …

महात्मा माण्डव्य के शाप से साक्षात् धर्मराज ही विदुर जी के रूप में उत्पन्न हुए | एक बार एक चोर धन चुराकर माण्डव्य ऋषि के आश्रम में रखकर छिप गए | राजकर्मचारी चोरो सहित मुनि को भी ले गये | राजा ने सभी चोरों को शूली पर चढ़ाने का आदेश दिया | शूली पर चढ़ते ही सभी चोर तो मर गये लेकिन मुनि ज्यों के त्यों ताप कर रहे थे |

जब राजा को यह इसका पता चला तो वे दौड़कर आयें और मुनि के चरण पड़कर क्षमा मांगने लगे | राजा को क्षमा करके मुनि धर्मराज के पास पहुंचे | माण्डव्य जी धर्मराज से बोले कि मुझे किस अपराध के वजह से शूली पर चढ़ना पड़ा | इसपर धर्मराज जी ने बताया कि बचपन में एक पतिंगे के पूंछ के भाग में सींक घुसेड़ दिया था उसी का यह फल है | यह सुनकर ऋषि ने कहा कि बचपन का समय अज्ञान का समय होता है अतः महापुरुष उस अपराध पर ध्यान नहीं देते | | ऋषि ने कहा कि छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा दी है इसलिए मैं तुन्हें शाप देता हूं | इसपर धर्मराज जी ने कहा कि मुझे दासी पुत्र , राजा एवं श्वपच बनने का शाप मत दीजियेगा | क्रोध में आकर ऋषि ने कह दिया कि तुम तीनों एक साथ हो जाओ | इसी कारण से दासी पुत्र विदुर, राजा युधिष्ठिर और श्वपच भक्त बाल्मीकि हुए |

श्री विदुर जी धर्मराज जी के अवतार हैं | कौरव पक्ष के मंत्री होकर भी हमेशा धर्म का पक्ष लेते थे | उन्होंने धर्म के कारण ही हमेशा पांडवों की विपत्ति में सहायता की | विदुर की यह अपनी नीति थी कि जिस सभा में बड़े बूढ़े नहीं , वह सभा नहीं , जो धर्म की बात न कहे , वे बूढ़े नहीं , जिसमें सत्य नहीं वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो , वह सत्य नहीं | आत्म कल्याण को विदुर जी जीवन का परम लक्ष्य मानते थे | विदुर जी की नीति यह भी कहती थी कि कुल के हित के लिए एक व्यक्ति को त्याग दें , गाँव के हित के लिए एक कुल को छोड़ दें , देश के हित के लिए एक गाँव का परित्याग कर दें , आत्मा के कल्याण के लिए सारे भूमण्डल को त्याग दें |

एक बार की बात है कि विदुर जी की पत्नी विदुरानी हाथ पैर धोने के बाद मात्र एक वस्त्र होने के कारण नग्न स्नान कर रही थी | उसी समय श्रीकृष्ण आयें और उन्होंने द्वार पर से ही पुकारा | भगवान् का मधुर स्वर सुनते ही विदुरानी हर्ष से भरी मतवाली हो गयी और इसीलिए उन्होंने ने अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रखा और शरीर की स्मृति का निरादर करके उसे फेंक दिया शरीर का होश नहीं रहा | दौड़कर आईं और दरवाजा खोलकर कृष्ण के दर्शन किए | भगवान् ने उनके प्रेम भक्ति की भावनाओं का आदर करते हुए विदुरानी के ऊपर अपना पीताम्बर डाल दिया और जब विदुरानी को होश आया तो पीताम्बर को कमर से लपेट लिया | शीघ्र ही अन्दर जाकर कपडे पहन कर भगवान् के निकट बैठ गयी | भगवान् ने कहा कि काकी मुझे भूख लगी है | विदुरानी केला ले आई और पुनः प्रेम विवश में वेशुध होकर केला छिल – छीलकर छिलका खिलाने लगी | इतने में विदुर जी आये और इस दृश्य को देखकर बहुत झुंझलाए | विदुरानी को जब अपने भूल का पता चला तब उन्हें विदुर जी से कई गुना अधिक दुःख हुआ |
खुद कृष्ण भगवान् ने अर्जुन से यह कहा था कि पत्र , पुष्प , फल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है उस शुद्धि बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र , पुष्पादिक मैं प्रीति सहित खा लेता हूं |
विदुर जी ने सोचा कि प्रेमवश वेशुध होकर ही भूल से उसने केला का छिलका खिलाया और भगवान् ने खा भी लिया | अब वो अपने हाथ से केला छिल – छीलकर गूदा खिलाने लगे | तब जाकर मन में कुछ सुख और शान्ति आई | भगवान् से विदुर बोले कि यह स्त्री बड़ा दुःख देने वाली है जिसने आपको छिलके खिला दिए |
भगवान् प्रसन्न होकर बोले कि काका जी आपने यह बड़ा भारी काम किया कि मुझे फलसार खिलाया | पर जैसा सुन्दर स्वाद उस वस्तु में था , वैसा इसमें नहीं है | वैसी वस्तु तो मैंने कभी नहीं पाई है | उधर विदुरानी जी संकुचित होकर अपने आप को कोस रही थी , वे सोच रही थी कि क्या करूँ , वो हाथ ही काट डालूँ जिनसे मैंने अपने प्राण प्यारे लाल को छिलके खिलाये | छिलके प्रभु को कैसे लगें होंगे | यह बात विदुरानी को अच्छी नहीं लगी |
एक बात तो पक्की थी कि विदुरानी जी का छिलके खिलाना तथा विदुर जी का केला की गिरी खिलाना ये दोनों बातें प्रेम की ही थी | उसका कोई पार नहीं पा सकता | जो कोई श्याम सुन्दर से भली – भांति प्रेम करे वही रहस्य को जान सकता है |

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