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Wednesday, October 03, 2012

निर्वस्त्र होता न्याय


कहते हैं शरीर नश्वर है, इसे मिट जाना है. शरीर पर लगे घाव भर जाते हैं. वहीं आत्मा को पहुंची चोट के निशान हमेशा उभरे रहते हैं. सभी धार्मिक ग्रंथों का यही मानना है कि आत्मा को दूषित होने से बचाया जाये, किसी के शरीर पर चोट करने से ज़्यादा क्रूर है किसी की आत्मा पर वार करना. पर चूँकि समाज अपने अनुसार हर महान विचार के साथ फ़ेर बदल करता रहा है तो ये कोई अनोखी बात नहीं कि नि:वस्त्र हो विरोध प्रदर्शन करती औरत को मानसिक रूप से असंतुलित बताया जाये.
पिछ्ले दिनों एक पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अदालत में सुनवायी के वक्त अपने कपड़े उतारने शुरु कर दिये, ऐसा इसलिए हुआ क्युंकि वो बार-बार टल रही सुनवाई से तंग आ गयी थीं, इससे पहले भी इस महिला ने पी.एम हाउज़ के आगे खुदकुशी करने की कोशिश की थी. मगर उनके इस कदम को कोई खास तवज्जो नहीं मिली. इस महिला ने अदालत में ऐसा एक बार नहीं दो बार किया, पहली दफ़ा उनके विरोध में चिल्लाते हुए निर्वस्त्र होने को महिला पुलिस कॉनस्टेबलों द्वारा रोक दिया गया. मगर दूसरी बार ऐसा करने पर मानसिक जांच का आदेश दे दिया गया जिसके तहत उन्हें “इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंडएलाइड साइंस (इहबास)” में भर्ती किया गया. इस पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अपने सीनियर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था.
हम जिस संस्कृति में जी रहे हैं वहां बचपन से ही लड़की को उसके शरीर की एहमियत इस कदर समझाई जाती है कि खराब मानसिक हालात में भी कोई महिला यूं ही कपड़े नहीं उतारने लगती. यहां तक कि सड़क पर गर्मी या कमज़ोरी से बेहोश होती महिलाओं को भी गिरने से पहले अपना दुपट्टा ठीक करना याद रहता है. घरों में दादी-नानियां भी अपनी साड़ी के पल्लु को कलेजे से लगा कर रखती हैं. कुछ एक जगहें जैसे ’स्ट्रिप क्लब्स’ में जवान लड़कियों को शरीर से एक-एक कर कपड़े अलग करते देखा जा सकता है पर वो भी होशोहवास में जीवन व्यापन के लिये ऐसा करती हैं. वैसे भी हिंदुस्तान में ऐसे क्लब प्रचलन में नहीं हैं. यहां वेश्यावृत्ति भी रात के अंधेरे में, शरीफ़ों की गलियों से दूर गुमनाम कोनों में पलती है. शरीर की जितनी एहमियत इस समाज में है, शरीर का जितना प्रभाव इस समाज पर है उसके कारण आत्मा शरीर के भीतर अपनी पहचान और अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों को लेकर रोती रहती है. इस बात से किसी को फ़र्क पड़ सकता है कि एक बीवी को उसका पति दिन-रात पीटे मगर इस तकलीफ़ पर कम ही भौंए उठेंगी कि वो हर वक्त पति की फ़टकार सुनती है.
पिछ्ले दिनों मनिपुर में असम राइफ़ल्स के जवानों द्वारा एक लड़की का बलात्कार और फिर उसे उग्रवादी बताकर हत्या कर देने का मामला सामने आया था. इस घटना पर कुछ युवतियों ने कपडे फेंक कर असम राइफ़ल कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. गुस्से में नारे लगाती युवतियों को वहां से हटाने में सेना को बड़ी मशक्कत हुई थी. आप किसी को अकेले में निःवस्त्र कर उसका बलात्कार कर उसकी हत्या करते हैं तो ये अपने आप में पूरी नारी जाति को निर्वस्त्र कर उसकी हत्या करना होगा. एक इन्सान में एक दुनिया बसती है और एक इन्सान के साथ अन्याय पूरी इन्सानियत के साथ अन्याय है. जब मन को आघात लग ही गया जब ज़हनी तौर पर किसी को तोड़ ही दिया गया, जब आत्मा को बेपर्दा कर ही दिया गया तो ये कहां मायने रखता है कि शरीर पर पर्दा रहा कि नहीं. यौन उत्पीड़न की शिकार महिला अधिकारी, सुनवायी के दौरान कितनी बार नंगा करते सवालों से इज़्ज़त बचाने की कोशिश में लगी रही. उस पर उसकी इस लड़ाई में तमाम तरह की न्यायिक बाधांए उसके सब्र का इम्तिहान लेती रहीं. अब अगर वो रोज़ ब रोज़ जूझती, कपड़े नोंचते सवालों से तंग आ गयी तो गलती किसकी है. कौन सा आसमान टूट पड़ा जब उसने हिम्मत हारकर कपड़े फेंक दिये कि ये लो अब कुछ बचा ही नहीं तो छुपाऊं क्या.
क्या ये बहतर नहीं होता कि उसे मानसिक इलाज के लिये भेजने कि बजाय उसकी बात सुन ली जाती. समय भी कम लगता और वो खुद को ठगा हुआ भी ना महसूस करती. अदालत की अपनी मान-मर्यादा है, पर उसी मर्यादा को लाघंते हुए जब अदालत में बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसा मसलों पर पीड़ित के मान को तार-तार किया जाता है तो क्या उसकी ज़िम्मेदारी भी अदालत की नहीं बनती है. वैसे भी कहते हैं इज़्ज़त देने पर ही इज़्ज़त मिलती है.
द्रौपदी का अपमान ये नहीं था कि भरी सभा में उसका चीर-हरण हुआ. उसकी साड़ी का छोर तो वहीं से खिंचना शुरु हो गया था जब पांडवों ने द्रौपदी को वस्तु समझ दाव पर लगाया. जब सम्मान के टुकड़े हो ही गये तो स्तन को छुपाने का क्या महत्व है.

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