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Wednesday, October 03, 2012

Haat The weekly Bazaar : सामंतवादी छलिया पुरुष समाज में नग्न होती स्त्री शक्त्ति की विजय गाथा


महान कवि साहिर लुधियानवी ने 1958 में शोषित और उपेक्षिता स्त्री रुप की दुर्दशा को अपने काव्य से अभिव्यक्त्त किया था और पिछले पचास सालों से वह गीत जगत को झझकोरता और झिंझोड़ता आ रहा है। आधी सदी के दौरान किसने सोचा होगा कि एक महिला निर्देशक अपनी पहली ही फिल्म में उस महान पद्य रचना के भावों को फलीभूत कर देगी। सीमा कपूर ने अपनी पहली ही फिल्म से बखूबी दर्शा दिया है कि आने वाले समय में विश्व में उनका नाम भारत की एक बहुत अच्छी निर्देशक के रुप में प्रसिद्ध होने वाला है। फिल्म देखकर कहीं से नहीं लगता कि सामंतवादी और शोषक पुरुष समाज में स्त्री शक्त्ति के शोषण और पुनर्जागरण पर आधारित यह धारदार फिल्म उनके द्वारा निर्देशित पहली ही फिल्म है।
अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी
सीमा कपूर के अनुसार कभी कभी स्त्री के समक्ष ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि उसे खुद का होना ही प्रकृति द्वारा रचित दुखद और हास्यास्पद मज़ाक लगने लगता है। ऐसी ही परिस्थितियों से रुबरु होने पर वे बड़े शहरों का जीवन छोड़कर राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में रहने चली गयी थीं। कई साल वे वहीं रहीं और वहीं उनकी मुलाकात एक महिला – शारदा से हुयी जो कि अपने पति द्वारा सतायी जाती थी। उसके पति ने दूसरी शादी भी कर ली थी। शारदा जब किसी अन्य पुरुष से प्रेम करने लगी तो शारदा के पति ने पंचायत बैठाकर उसे दंडित करवा दिया।
राजस्थान के कुछ इलाकों में एक अमानवीय प्रथा “नथ-प्रथा” का पालन किया जाता है। इस प्रथा के अनुसार यदि कोई महिला अपने पति को छोड़कर किसी और पुरुष के साथ रहना चाहती है तो उस पुरुष या स्त्री के पिता को उसके पति को मुँहमाँगा हर्जाना देना पड़ता है और यदि वे ऐसा करने में असमर्थ रहते हैं तो स्त्री को ऐसा दंड दिया जा सकता है जिसमें उसका मुँह काला करके, बाल काटकर, उसे पूर्णनग्नावस्था में सबके सामने घुमाकर अपमानित किया जाता है।
शारदा को भी ऐसे ही दंड देने की घोषणा की गयी। सीमा कपूर ने शारदा को तो सरेआम अपमानित होने से बचा लिया परंतु उनके मन में विचार उठने लगे कि एक स्त्री को बचाने से क्या होगा? और इस घटना से जुड़ने के कारण उनके अंदर उठे विचारमंथन ने उन्हे इस प्रथा पर शोध करने के लिये प्रेरित किया और उस शोध के परिणामस्वरुप इस फिल्म – हाट का जन्म हुआ।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिये यह बेहद शर्मनाक बात है कि 21वीं सदी के पहले दशक को पार कर चुकने के बाद भी अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं कि इस-उस जगह एक महिला को नग्न करके घुमाया गया। कभी जाति के नाम, कभी सम्प्रदाय के नाम और कभी केवल पुरुषोचित अहंकार की तुष्टि के लिये स्त्री को इस अमानवीय तरीके से जलील किया जाता है। लोग बस खबरों को सरसरी तौर पर पढ़कर रह जाते हैं। अखबार वाले भी अपने हितों को देखते हुये ऐसी खबरों का स्थान बदलते रहते हैं। यदि ऐसी खबर उन्हे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लाभ पहुँचा सकती है तो ऐसी खबर पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से छापी जाती हैं और अगर यह उन्हे बस एक साधारण खबर लगती है तो अंदर के किसी पृष्ठ पर छोटी सी खबर के रुप में इसे छापा जाता है।
प्रशंसनीय है कि सीमा कपूर ने भारत में नासूर की तरह फैलती जा रही एक सामंतवादी प्रवृत्ति की खाल उधेड़ने वाली फिल्म बनाने का साहस किया है और फॉर्मूला फिल्मों की भीड़ के बीच एक  बेहतरीन और विचारोत्तेजक फिल्म बना कर दिखायी है। NFDC भी बधाई का पात्र है जिसने ऐसी सार्थक फिल्म के निर्माण में अपना सहयोग दिया है।
शकुंतला और सीता की पौराणिक कथाओं के समय से ही चरित्र की शुद्धता केवल स्त्री के लिये ही एक मानक बनी रही है जबकि पुरुष लाख किस्म की लम्पटता के बावजूद सीना ताने चलता जाता है।
बीजा (अर्चना पूरण सिंह) नाटक करके, गाकर खाती कमाती है। जिंदा रहने और अपनी बेटी संजा (दिव्या दता) की भलाई के लिये कभी कभी उसे अपना शरीर भी मनुष्य के रुप में कामुक पशुओं को सौंपना पड़ता रहा है। पर जब कामुक निगाहें संजा के चारों ओर घेरा डालने लगती हैं तो बीजा को मजबूरन पाँच हजार रुपये देकर संजा की शादी रामचंद्र (यशपाल शर्मा) से करनी पड़ती है, जो कि पहले से विवाहित है। बीजा संजा की जिंदगी में सौत की मौजूदगी को भी यह सोचकर स्वीकार कर लेती है कि बेटी वेश्यावृत्ति में फँसने से तो बच जायेगी।
आश्रितों में आपस में बहुत लड़ाई होती हैं क्योंकि उन्हे अपने हितों को लेकर बहुत भय लगा रहता है। संजा की सौत – कला, भी संजा से जानवरों की भाँति लड़ाई किया करती है। वह संजा को कोसती है, गालियाँ बकती है। वह बार बार संजा को ताना देती है कि वह एक बाँझ औरत है पर उसे इस बात की जलन भी है कि रामचंद्र अपने शरीर की भूख मिटाने के लिये संजा के पास ही जाता है।
शादी होकर भी संजा नित्य ही अपमानित होती रहती है। ऐसे में गाँव में ही रहने वाला छैल-छबीला भँवर सिंह (मुकेश तिवारी) उसे सहारा देने का दम भरता हुआ उसके सामने प्रेम निवेदन करता है और वह संजा का पीछा तब तक करता रहता है जब तक कि वह रज़ामंदी नहीं दे देती।
रामचंद्र ने दो विवाह किये और समाज को तब भी दिक्कत न होती अगर वह तीसरा विवाह करके तीसरी पत्नी को भी घर ले आता परंतु उसके अहंकार को यह जानकर ठेस पहुँचती है कि संजा भँवर सिंह से प्रेम करने लगी है। घायल अहंकार से ग्रसित होकर वह पंचायत के सामने संजा और भँवर सिंह को घसीट लाता है और बीजा से पाँच हजार रुपये पाने की बात को झूठा बताकर संजा और भँवर सिंह से तीस हजार रुपये हर्जाने के रुप में लेने की बात पंचायत से मंजूर करवा लेता है। उसे बखूबी पता है कि वे दोनों इतना धन नहीं दे सकते। उसके अहं को संतुष्टि तभी मिलेगी जब वह संजा को नग्न करके गाँव में घुमाकर अपमानित करेगा।
फिल्म संजा की आधुनिक कहानी से सम्बंध जोड़ती है पौराणिक काल में स्थित कौशांबी में रहने वाली अम्बालिका की कथा से। अम्बा संजा को बताती है कि संजा ही अकेली शोषित स्त्री नहीं है बल्कि सदियों पहले वह भी ऐसे ही प्रेम के नाम पार धोखा खाकर शोषित हो चुकी है और उसे तब मुक्त्ति मिलेगी जब संजा सारी स्त्रियों के लिये निर्णय लेगी।
फिल्म में आधुनिक कथा के साथ पौराणिक कथा को बहुत प्रभावी ढ़ंग से सम्बंधित किया गया है और दोनों कथायें मिलकर दर्शक के अंदर विचार-विमर्श उत्पन्न करती हैं।
क्या तीन महीनों के समय में संजा और भँवर तीस हजार रुपये एकत्रित कर पायेंगे? भँवर संजा के सम्मान के लिये अपनी जमीन दाँव पर लगाने के लिये तैयार नहीं है। उसके पास अपना कोई भी ऐसा हुनर नहीं है जिससे वह इतनी बड़ी रकम एकत्रित कर सके। वह इस काम के लिये भी संजा पर ही निर्भर है और धन कमाने के लिये वह संजा के शरीर की नुमाइश लगाने से भी नहीं हिचकिचाता और उसे विवश करता है कि वह छोटे कपड़े पहनकर मेले में नाचे जिससे लोग उनके खेमे में आकर संजा पर पैसे लुटायें।
भँवर की चालाकियाँ, कमियाँ, और भीरुता संजा को हिम्मत देते हैं कि वह एक ऐसा जुआ खेले जिससे उससे पता चल जाये कि भँवर या कोई और उसका कितना साथ दे सकते हैं?
संजा को उसकी नानी उत्साह देती है कि तितली बहुत खूबसूरत होती है परंतु उसके खूबसूरत पंखों को नोंचकर छोड़ दिया जाता है इसलिये उन्हे मधुमक्खी की भाँति होना चाहिये, जो फूलों का रसपान भी करती है और जिससे लोग डरते भी हैं। हमें तो खुशी मनानी चाहिये स्त्री होने की खुशी।
पंचायत के सामने संजा की इस गिड़गिड़ाहट का कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह इस पंचायत में बैठे स्त्री पुरुषों के सामने ही बचपन से बड़ी हुयी है और आज यही लोग उसे नग्न करने पर उतारु हो रहे हैं। भँवर को म्हारे प्रेम की कदर नहीं इसने प्रेम और कला के नाम मुझे नँगा किया तुम लोग रीति के नाम नँगा कर रहे हो। तम्हे शर्म को ना। तुम्हारा समाज पुरुषों का समाज है।
द्रोपदी का चीरहरण देखने वाली सभा में पुरुषों का बहुमत था पर यहाँ पंचायत में स्त्रियाँ भी खड़ी हुयी हैं।
कब अंतिम बार किसी हिन्दी या भारतीय फिल्म को देखकर या किसी फिल्म का कोई दृष्य देखकर आपके रोंगटे खड़े हुये थे? पंचायत के सामने ढ़ोल पीटकर आती हुई बीजा और उसकी गर्जना को सुनकर रोंगटे स्वमेव ही खड़े हो जायेंगे।
स्त्रियों को प्रोत्साहित करती और मरदों को ललकारती बीजा कहती कि क्या देखना चाहते हो? उस जगह को जहाँ से दूध पीकर बड़े हुये हो या उस जगह को जहाँ से तुम्हारा जन्म हुआ है?
मनुष्योचित पुरुषों को शायद शर्म से पानी पानी कर देगा यह संवाद।
ढ़ोल बजाती, थाली पीटती, अपने अपने कपड़े उतारती हुयी हर उम्र की महिलाओं की भीड़ नृत्य करके स्त्री शक्त्ति की विजय का उत्सव मनाती हैं तो जीवन जैसे पुनः उपज जाता है, प्रकृति जैसे  फिर से संतुलन भरे लय में आ जाती है। पार्श्व में देवी माँ के काली और भवानी रुप की स्तुती में चलता गीत इस भाग को उच्च स्तर की ऊर्जा से जीवंत कर देता है। हिन्दी सिनेमा के परदे पर ऊर्जा का इतना संचार बिरला ही देखा गया है। फिल्म के क्लाइमेक्स से पहले के इस अदभुत भाग का सृजन एवम संयोजन सीमा कपूर के उच्च स्तरीय निर्देशन का प्रतिनिधित्व करता है।
फिल्म पुरुषों के खिलाफ नहीं है जैसा कि अम्बालिका अपने प्रेमी मनोहर से कहती है कि वह पुरुषों के विरुद्ध नहीं है बल्कि ऐसी व्यवस्था के विरुद्ध है जो केवल स्त्री को ही कलंकिता ठहराकर शोषित करती है।
मनोहर और भँवर दोनों ही अपनी कमजोरियों के कारण अपने अपने प्रेम को खोते हैं और जीवन में हार जाते हैं जबकि अम्बालिका और संजा अपने अपने गौरव को पुनर्स्थापित करके स्त्री शक्त्ति   के सम्मान को स्थापित करती हैं।
पंकज कपूर के साथ जलवा में काम करने के बाद से अर्चना पूरण सिंह लगभग पच्चीस सालों से फिल्मों में ऊटपटाँग किस्म की भूमिकायें करती आ रही हैं। पहली बार उन्हे ऐसी भूमिका मिली है जिसे करके वे अभिनय के क्षेत्र में काम करने की सार्थकता को सिद्ध कर सकी हैं। निस्संदेह बीजा की भूमिका में उनका अभिनय उनके अभिनय जीवन का सबसे उल्लेखनीय अभिनय प्रदर्शन कहलायेगा।
मुकेश तिवारी भी भँवर सिंह के रुप में अपने अभिनय जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। उन्होने भँवर सिंह के चरित्र की बारीकियों को बखूबी उभारा है।
हमेशा की तरह यशपाल शर्मा ने क्रूर रामचन्द्र के रुप में भी प्रभावी अभिनय किया है।
दिव्या दत्ता को बहुत अच्छी भूमिका मिली और उन्होने भरपूर न्याय करते हुये इस अवसर का लाभ उठाया है। चरित्र में पूरी तरह से डूब जाने के लिये उन्होने अपने आँखों की भौहों को तराशने का मोह तक छोड़ा है।
सिनेमेटोग्राफी में सन्नी जोसेफ ने काबिले तारीफ योगदान दिया है। ऐसा ही उल्लेखनीय प्रदर्शन है फिल्म के लिये संगीत रचना करने वालेअली ग़नी का। उन्होने फिल्म के लिये बहुत ही अच्छे गीत जावेदजसपिंदर नरुलारुप कुमार राठौड़मधुश्री और महालक्ष्मी अय्यर से गवाये हैं और बहुत अच्छी धुने तैयार की हैं। मेघों का झूला जैसे शुद्ध हिन्दी में रचे गये गीत में जावेद की आवाज की रेंज पता चलती है। जश्ने बहारा के बाद यह उनका बहुत अच्छा गीत है। उनकी आवाज अच्छी है और उच्चारण एकदम स्पष्ट है। अली ग़नी ने निशदके साथ मिलकर फिल्म को बहुत प्रभावी पार्श्व संगीत भी प्रदान किया है।
अशोक चक्रधर और निखिल कपूर ने अच्छे गीत फिल्म के लिये लिखे हैं।
संजीब दत्ता की एडिटिंग फिल्म को वांछित गति और प्रभाव दे पायी है।
कथा, कथानक, संवाद और शोध एवम निर्देशन के कई सारे मोर्चे संभाल रही, प्रख्यात लेखक एवम निर्देशक रंजीत कपूर एवम प्रसिद्ध अभिनेता अन्नू कपूर की अनुजा, सीमा कपूर ने भारतीय सिनेमा में धमाकेदार तरीके से प्रवेश किया है। और अचरज न होगा अगर पहले ही कई अंतराष्ट्रीय जगहों पर ख्याति पा रही फिल्म भारत में भी राष्ट्रीय पुरस्कारों को बटोर ले जाये।
जैसे भी संभव हो, अच्छे सिनेमा के उत्सुक दर्शक इस फिल्म को देखें जरुर।
…[राकेश]

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